"दुनिया इन दिनों" पत्रिका
रे नूवे अंक में कवि, आलोचक भायलो नीरज दइया
कीं कविताओं रो अनुसिरजण करयो है.
मन माय आयो आप भी इण कारज ने देखो, आपरी दीठ सारू--
दृष्टि देती है कविता
अकाल सुनाता है-
अनहद नाद,
कवि तुम भी गाओ-
गीत मनों के।
अलग-अलग है-
सबका अपना-अपना आकाश
पर धरती सभी की एक !
हे मनुष्य !
मत भूल मनुष्यता
कविता देती है-
दृष्टि।
००००
पर धरती सभी की एक !
हे मनुष्य !
मत भूल मनुष्यता
कविता देती है-
दृष्टि।
००००
कविता है हथिहार
इससे पहले
कि सूख जाए
सभी हरियल वृक्ष
आकाश से
बरसने लगे अंगारे
तारों की छांह में जाकर
सुसताने लगे सूरज
उजियारा करने लगे प्रयास
अंधेरे में छुप जाने के
इससे पहले कि
दौड़ने लगे
उम्मीदें और आशाएं
सूख जाए आंखों से पानी
आओ !
इस भरोसे के बल रचें कविता
अंत में कविता ही है
अनहोनी में आयुध।
००००
जीवन
जब जगता हूं
तब हो जाता है उजाला
जीवन है- उजाला।
जब होता है अंधेरा
तब आ जाती है नींद
मृत्य है- निद्रा।
जब लिखता हूं
तब हो जाता हूं आकाश
मन है- आकाश।
जब सोता हूं
तब आते हैं स्वपन
आकाश है- सपनें।
जब मंदिर जाता हूं
तब प्रार्थना करता हूं
पछतावा है- प्रार्थना।
जब नहीं हल होती समस्याएं
तब आता है क्रोध
अंतस का भय है- क्रोध।
उजाला, निंद्रा, आकाश,
स्वपन, प्रार्थना, क्रोध-
इन सब को कर के एकत्र
जीता हूं- यह जीवन !
००००
००००
चाय पीते हुए मां
जब पास नहीं होती मां
रहती है वह
आंखों में हमारी।
छुट्टी के दिन
धूप चढ़ने तक
नहीं उठती बहू
कुछ फर्क नहीं पड़ता
मां के
वह उठ जाती है अल-सवेरे
लेकिन नहीं छोड़ती बिछौना
डरती है कि कहीं आवाज ना हो कोई
चाय पीने की तलब होते हुए भी
नहीं जगाती बहू को।
चुप-चाप प्रतीक्षारत
घड़ी में तलाशती
बहू के सवेरे को
और बहू भीतर संकुचाती
जब उठती है, कहती है-
“आज देर हो गई
आपको चाय नहीं दे सकी,
अभी लाती हूं...”
चाय पीते हुए मां
साफ झूठ बोलती है-
“आज मेरी भी आंख
जरा देरी से ही खुली थी।”
००००
रेत-घड़ी
हवा पौंछती है
धोरों पर अंकित पद-चिह्न
रहता नहीं कुछ भी शेष
रेत-घड़ी
कण-कण का करती हिसाब
जो बीत गया
कर देती है उसको-
मुक्त !
कण-कण का करती हिसाब
जो बीत गया
कर देती है उसको-
मुक्त !