Saturday, September 7, 2013

"कविता देवै दीठ" सूं कीं कवितावां

कविता री दीठ संस्कृति रे पाण ही हुवे. इण बात रो गुमेज है के हूँ राजस्थानी जेड़ी जग री लूंठी-अलूंठी म्हारी मायड  भासा मायं सोचू. राजस्थानी री सबद संपदा पर जद भी जाऊं, लखावे राजस्थानी फगत भाषा नी, मिनखपणे रे जुगबोध ने अंवेरती संस्कृति है.  इण पर कदै फेरु...अणभार "कविता देवै दीठ" सूं कीं कवितावां आपरी खातर...


जीवण

जागूं जणै
उजास हुय जावै
उजास, जीवण है।

अंधारो हुवै जणै
नींद आ जावै
नींद, मिरतु है।

लिखूं जणै
अकास हुय जावूं
अकास, मन है।

सोवूं जणै
सुपना आवै
सुपना, अकास है।

मिंदर जावूं जणै
अरदास करूं
अरदास, पछतावो है।

नीं पड़ै पार जणै
रीस आवै
रीस, अंतस रो डर है।
उजास / नींद/
अकास / सुपना
अरदास / रीस-
आं सगळां नैं
भेळा कर
जीवूं ओ जीवण।
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निसर जावै रेत

रेत नीं
अंवेर्यो हो
धोरां रो हेत।

धोबा भर-भर
भेळी करता बेकळू
भायलां सागै
रळ-मिळ’र
रोज बणावता
म्हैल-माळिया।

विगत मांय जावूं
सोधूं-
कीं लाधै कोनी
भींच्योड़ी होवतै थकै
छानै’क
मुट्ठी सूं
निसर जावै रेत।
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रेतघड़ी

पवन धोवै
धोरा मंड्या पगल्या
कीं नीं रैवै बाकी
रेतघड़ी
कण-कण री
करै गिणती
बीत्योड़ै नैं करती
मुगत....।
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सबद

एक
अदीठ नैं
देवै दीठ,
थारै-म्हारै
बिचाळै रो भरै-
आंतरो।

गूंगा होवता थकां पूगै
था कनै म्हारा
अर
म्हा कनै थारा-
सबद।

म्हूं पोखूं
म्हारी पीड़,
भेळो करूं हेत....
आव-
अबखै बगत सारू
अंवेरां आपां
थारै-म्हारै बिचाळै रा
अणकथीज्या
सबद।
०००००००००००००

दोय
नाप लेवै सबद
अरबां-खरबां
कोसां रो आंतरो
बूर देवै
मन मांय
खुद्योड़ी
अलेखूं खायां।

घणकरी बार
सुळझाय देवै
अंतस मांय
उळझ्योड़ा
हजारूं-हजार
गुच्छा।

सबद पुळ है
अबखै बगत रा
जीवण-जातरा रा।
००००००००००००००००००

लिखै मांय सबद री लय



बात बोलेगी
हम नहीं।
भेद खोलेगी
बात ही।
सत्य का मुख
झूठ की आंखे
क्या देखें!
       -शमसेर बहादुर सिंह

‘युवा लेखन री चुनौत्यां’ मुजब जद कथाकार भाई सत्यनारायण सोनी कीं बोलण री नंूत दी तदसूं ही हिन्दी रा लूंठा कवि शमसेर री आ कविता निजरां सामीं पळको मारण लाग री ही। बात आपां जकी बोलां, जकी आपां लिखा, मनगत रो भेद बा ही दूजा कांनी उघाड़ै।...साच रो मूंडो अर कूड़ री आंख्यां!  शमषेर री इण कविता मांय जावां तो लिखण री सैंग चुनौत्यां निजरा सामीं आपैई दिखण लाग जासी। शमषेर रै सागै राजस्थानी रै म्हारै कवि भायले प्रमोद शर्मा री अेक कविता याद आवै, ‘जठै उगणो हो रूंख/बठै नीं ही जमीन/अर/जठै ही जमीन/बठै ताई नीं पूग्यौ बीज!’ 
मनै लागै लिखण री चुनौत्यां अंवेरते आज सैं सूं लूंठी दरकार उण जमीन नै सौधण री ही है जठै लिखण रो रूंख उग सकै अर हमेस हरो रैय सकै। इस्यौ जको इण बगत रै लोगां रै सागै आवण आळी पिढ्यां नै भी आपरी छिंया दे सकै। जठै बैठ’र दौर-दायरै सारू सावठी बंतळ हुय सकै। जकै मांय न्यारै-न्यारै आभै उडता पखेरू आय’र सुस्ता सकै। जठै विचारधारा रो कोई अेक पख नीं सगळा पख राख सकां। जकै री छिंया मांय अेके सागै सुवावती, नीं सुवावती बात सुणन अर कैवण सारू हथायां हुय सकै। 
युवा लिखारां सामीं इण तरै रै रूंख उगावण रै सागै, उग्यौड़ा इस्या रूंख री जमीन बचावण री भी अबखी चुनौती है। राजस्थानी भासा री सगती आ है कै इण भासा रो सांवठो इतियास है, इणरी आपरी संस्कृति है अर इण मांय सबदां री अखूट सौरम है। आ बात इण मुजब कैवूं कै म्हूं मायड़ भासा राजस्थानी सागै हिन्दी मांय भी लगोलग लिखूं। पण आ बात कैवते घणो गरब हुवै कै म्हारै लिखै मांय सबदां रो उजास मायड़ भोम राजस्थानी अर उणरा घणकरा सबदां पेटे ही है। लिखती वेळा राजस्थान री संस्कृति, नेगचार अर सबदां री मिठास जद चित चेतै रैवे तद अचाणचूक कलम सूं सबद आपै ही झरण लाव जावै। इण झरता सबदां मांय फुटरा सबद छांटा तो बै भणन आळा नै घणकरी म्हारी मायड़ भोम रा ही मिलसी। 
पण, अठै तो अणभार री ही बात करूं। कथाकार भाई सत्यनारायण सोनी ‘युवा लेखण री चुनौत्या’ मुजब कीं कैवण री नूंत दीनी। बस तद सूं ही संकट मांय हूं। युवा लेखन री चुनौत्यां पर शमषेर बहादुर सिंह अर प्रमोद री कवितावा मुजब जकी बात्यां राखीं, बै तो आपरी जगै है ही। बांरै सूं अळगो कीं सोचूं तद मन दूजी घणकरी अबखायां सूं भी जूझतो लखावै। इण बगत लूंठो संकट ओ है कै लिखण री अलेखूं चुनौत्यां मांय सूं किणी अेक या दो-तीन पर फोकस कर म्हारी बात थां सांमी कियां राखूं!
 युवा लेखण री चुनौत्या इती है कै बोलसां या लिखसां तो थमण रो गैलो ही नीं मिलैला। सोचूं, इण बगत युवा लेखन री अबखी चुनौती बगत रै धमीड़ा री है। चुनौती लिखण री नूंवी कूंत री है। चुनोती भणन सूं लगोलग दूर हो जावणै री है। चुनौती लिख्यै मांय सबद रै मांय री लय नैं अंवेरण री है। संस्कृति नै आधुनिकता रै पेटे बखाण करण री है। भासा अर उणरी हूंस नै परोटण री है। अलोप हुवता संस्कारां नै जोवण री है। अर लूंठी चुनौती इण अबखी वेळा मांय बिना गांव रै ‘ग्लोबल विलेज’ कथीजते वैस्वीकरण रै इण जुग मांय भासा पर मंडरातै संकट री भी है। 
म्हूं ओ मानूं किणी भी लेखक खातर लिखणौ अपणै आप सूं अर आपरै जुग सूं जूझणौ है। विगत मांय जको लिखिजग्यौ, बो पाछो नीं लिखीज सकै। लिखीज्यौड़े नै फेरूं लिखण री दरकार भी कईं! जकी तरै सूं पैली लिखिज्यौ है, उण तरै सूं भी जै लिखां तो बो साव अनुकरण ही नीं होसी! तो फेर इस्यों कईं करां कै आपां जको लिखां, बो मौलिक हुवै अर जिण मांय बगत री आपरी दीठ सूं पैचाण हुवै। इसी जकी आवण आळे बगत मांय कूंतीज सकै। 
हरेक दौर अर दायरै री आपरी अेनाण हुवै। उण मांय रैवते, उणनै देखते अर उणनै भोगते अणभुत्यां रो नूंवो भव आपैई बणै। इ भव नै ही लिखण मांय परोटण री दरकार हुवै। लिखण री तमाम चुनौत्या कानी विचारते कलाविद् आनंदकुमार स्वामी री लिख्यौड़ी बात चेते आवै, ‘नुंवोपण नूवैं मांडण मांय नीं है, नुंवै होवण मांय है।’ मतलब ओ कै, नूंवों तो आपां कीं मांड नीं सकां। कियां मांडसा! जको परतख है, जको पैली हो चुक्यौ है, बो फेरूं नूंवो लिखण मायं भी कियां होसी। बो तो बोईज रैसी। तो फेरूं नूंवांे मांडण सूं बो नूंवो किंया होसी! दूजी बात नूंवै होवण री है। तो नूंवो होवण खातर आपां नै अंतस मांय झांकणौ पड़सी। अंतस रै उजास नै सोधणो पड़सी। अंतस रै उजास कनै पूगणौ ही नूंवो होवणौ है। सवाल ओ है कै अंतस रै उजास कानीं कियां पूगां? मनै लागै सबद री लय इण मुजब आपां री मदद कर सकै। सबद ब्रह्म है, आ बात इंया ही तो नीं कथीजी है! म्हारी अेक कविता है, ‘नाप लैवे सबद/अरबां-खरबां/कोसां रो आंतरो/बुर देवै/मन मांय/खुद्यौड़ी/अलेखूं खायां/घणकरी बार/सुलझाय देवै/अंतस मांय/उळझ्यौड़ा/हजारूं-हजार/गुच्छा।/सबद पुळ है/अबखै बगत रा/जीवण-जातरा रा।’
पूछो जाय सकै, सबदां री सौरम कनै किंया पूगां?  मनै लागै बठै जावण रो गैलो ही युवा लेखन री आज री सैं सूं मोटी चुनौती है।  राजस्थानी भाषा मांय लिखण री जूनी परम्परा मांय सबदां री सौरम ठौड़-ठौड़ है। आ इस्यी है जकी मांय न्यारी-न्यारी मानसिकता रै होवते थकै जुग रै जथारथ नै पकड़न री खपत हमेस होवती रैयी है। इण भासा रो सिजरण जन-जन रै कंठा री सोभा बण्यो तो इणरो कारण सबदां री लय रा सोवणा रा मन मोवणा संस्कार है। चुनौती इण सबद संस्कारण नै आज रै संदर्भा मांय परोटण री है। भणन री कम होवती आदत, लिखीज रियै मांय संस्कृति अर इतियास अंवेरण री हंूस नीं होवणो अर जीवण सूं सिरजण रो सरोकार लगोलग छूटतै जावणै जैड़ी अबखायां नै सबद रै संस्कार सूं जोड़’र ही देख्यो जाय सकै।
इंगलैण्ड रा साहित्य सिद्धान्तवेत्ता रैल्फ फाॅक्स आपरै लिख्यै मांय अेक जगै लिखै, ‘साहित्य मांय जीवण मुजब लेखक री राय री दरकार नीं हुवणी चाइजै, बठै जीवण री छवि हुवणी चाईजै।’ युवा लिखण री चुनोत्यां मुजब फाॅक्स रे इ कथै पर ही जावां। अणभार जको लिख्यौ जा रैयो है, उण मांय लिखारो खुद ही घणो बोलतो लखावै। जीवण बठै सूं गायब है। अर जीवण है भी तो उण मांय आधुनिकता रे पेटे तकनीक, बदळती फैसन अर दूजी चींज्यां रो दरसाव घणो है। 
मनै लागै ‘आधुनिकता’ अर ‘समकालीनता’ री होड़ मांय सबदां री हूंस सूं लेखक लगोलग अळगो होय रैयो है। आधुनिकता कईं है? इणनै समझण री भी आज घणी दरकार है। सिरजण जुग सापेक्ष हुवै, इण खातर रचना मांय आधुनिकता नै परोटणो घणो जरूरी है, आ बात साव साच है। पण आधुनिकता साव सबद नीं है। बो इस्यौ दरपण हुवै जकै मांय आपां बगत नै खुद रै सागै मिलाय’र ओळख सकां। अेक तरै सूं आधुनिकता आखती-पाखती नै नूंवी अबोट दीठ सूं देखणो है। ...अर कोरो देखणो ही नीं बठै परखणो भी हुवै। आपरै आपै। बगत नै अर विगत नै। ओ करते थकै उण मांय रमणौ अर बसणौ पड़ै। कीं सिरजां जणै आ सगळी कुव्वत उण रै मांय आवै जणै ई आधुनिकता री बात बणै। फेंरू कैवूं, आधुनिकता कोरो सबद नीं है। संस्कार है। इस्यो, जकै मांय अणभार अर आवण आळे बगत ने आपां खुद री दीठ सूं परोट सकां। आधुनिकता नै जका प्रयोगधर्मिता री तड़क-भड़क अर देखा-देखी समझे, बै भरम पाळै। नूंवी तकनीक, चमक-दमक रा दरसाव, खावणो-पीवणो अर नीत बदलण आळी फैसन नै जीवणो, जीवण रो ढंग होय सकै, आधुनिकता नीं। 
आधुनिकता जीवण नै नुंवै ढंग सूं देखण री दीठ है।  इसी दीठ जिणरी तरै पैली कदैई जीवण नीं देखिज्यौ है। लिखती वेळा जीवण रै ढंग नै कथा-कहाणी, कविता अर सिरजण री दूजी किणी भी विधा मांय राखां तो बा आधुनिकता नीं है। इण मुजब बोरिस पास्तनाक रो लिख्यौड़ो चेते आवै,  ‘कला जीवण रो चितराम भर नीं है, जीवण रो बिम्ब अर अेक तरै सूं उणरो उथळौ है। समकालीनता रो अरथ जुग जथारथ नै परोटण संू ही नीं लैयीजै, इणरो अरथ बदलाव सारू सचेत होवणो है।’ इण सागै म्हारी बात मिला’र कैवूं, समकालीनता रो अरथ बगत री खेचळ सूं लेखक रो नैड़ोपण, उणरो बगत रै बायरै सूं सगपण है। ओ सगपण खरो हुवै। इण मांय ईमानदारी हुवै, जणै ई कोई सिरजक  आधुनिक होय सकै। कैय सकां कै, आधुनिक होवण रो मतलब है, आपरै घेरै सूं बाण्डे झांकणौ। दूजा कईं केवै, उणनै सुणन सारू हमेस तैयार रैवणो। दूजै री नीं सुवावती बात सुणन रो धीरज। अर बो हाको सुणन री कुव्वत जको अंधारै सूं आवतो लखावै। सिजरण मांय ओ सोरो नीं है। दोरो ह,ै पण नुवों कीं थरपणो है तो ओ करण ही पड़सी। 
आधुनिकता जुग जथार्थ नै अंतस रै उजास सूं परखतै, उण मांय खुद री भाव-भोम री थरपणा करणौ है। आ थरपणा कैवण री नूंवी दीठ सूं होय सकै। आ थरपणा सबद री नूंवी हूंस सूं होय सकै। आ थरपणा विगत नै आवण आळे बगत सूं परखण रै चेतै सूं होय सकै। आ थरपणा सबद रै मांय रै सबद नै जोवतै उण सूं नूंवा अरथ देवतै होय सकै। अर आ थरपणा जुण-जातरा अर दोर दायरै बिचाळै जीवण री जरूरत नै थापित करण री खपत पेटे होय सकै। लिखण आळा रचना री पाण नुंवी व्यवस्था री थरपणा सागै आम आदमी री मनगत नै परगट करै। बै परम्परा नै अंगेजता खुद रै होवण रो औचित्य सिजरण मांय तलासै। 
संस्कृत साहित्य भणतै अेक जगै आवै, ‘क्षणं क्षणं यन्न्वतामुपेति तदैव रूपं रमणीयतायाः’ इणरो अरथ है, नूंवौ बो है जको घड़ी-घड़ी मांय नूंवो अर औरूं नूंवो लखावै। इण सारू सबदां रै ओज सूं सगपण करणो पड़ै। इण सारू संस्कृति री उजळी परम्परावां सूं नैड़ोपण होवणो जरूरी है। राजस्थानी भासा मांय लिखण रै सबद संस्कारां पर जावूं जणै लागै बठे सबद रै मांय री लय हमेस ही लिखण मांय अंवेरीजी है। मनोहर शर्मा री जूनी कविता ‘वीणा’ रा सबद याद आवै, ‘पान-पान सौरम सरसाई/कण-कण मांय उजास/अम्बर मंे मद लाली छाई/पून छकी रस-रास।‘ अठै ओपता सबद भासा री संस्कृति अर उणरी सौरम री मतैई साख भरै।  उस्ताद री अेक कविता रा सबदां कानीं भी झांका, ‘कूड़ कपट कण-कण में रमग्या/भली चाल भांडा में भिळगी/कमतरियां री कठण कमाई/वाण्यां री डाढां में झिलगी।...’ इणी भांत सत्यप्रकाष जोषी री अेक कविता रा सबद है, ‘मन रा मीत कान्हा रे’। पद्य ही नीं गद्य मांय भी सबद री आ लय लिखारां सावंठै ढंग सूं अंवैरी है। लारलै दिनां किरण नाहटाजी री निबन्ध पोथी ‘लोक रो उजास’, भण रैयो हो। ‘आसा रूडि़यो’ निबन्ध मांय सबदां री सौरम मन मांय अणभार भी छायोड़ी है, ‘जेठ रो महीनो। धरती आग उगळै। आभो लाय बरसावै। भातै रो बगत। रिंधरोही। ओठी अर उणरो ऊंठ दोनूं आकळ-बाकळ। विकल बटोही पलाण रै टांग्यौड़ी लोटड़ी सूं दो घूंट पाणी रा पी रीती लोटड़ी पूठी ही पलाण रै आगै टांग दै।...’ सोधां तो राजस्थानी मांय अेड़ी सौरम ठौड़-ठौड़ सबदां मांय मिलसी। ध्यान राखण री बात आ भी है, किणी सबद रो अरथ सबदकोस मंे दियोड़ो ही हुवै, ओ जरूरी नीं है। घणकरी बार सिरजण रै बगत बो आपरी ठौड़ सागै अरथ री नुंवी छबि भणन आळै सामीं राखै। कैंवूं, सबद री ओप उणरी ठौड़ पेटे गिणीजै। घणो बगत नीं हुयौ, युवा लेखक राज बिजारणिया अेक सबद फेसबुक मांय नाख्यौ, ‘चाल भतुळिया, रेत रमां’। मन करै सबदा री इण लय, ओप पर मर मिटा। इण सबदां री जगै किणी और भासा रा सबद लेय सकै? सबदां रो फुटरापो अर मांय री आ लय चाव’र भी कोई बिसरा सकै! 
बरस बीतग्या। उण बगत बीकानेर रेडियो स्टेषन पर अेक कार्यक्रम ‘गूंजे गांव गुवाड़’ रो संचालण करतो हो। धीरा सैन रै गायौड़े अेक लोकगीत रा सबद आज भी ओळ्यूं मांय बस्यौड़ा है। ‘ उभण तो उजास बरण्यौ, गांया रा गुवाड़ा चाल्या... काळौ जी काळो...’। सबद री पाण अठै परिवेस रो निजरा सामी चितराम मतै ही मंडै। कला रै सौन्दर्य री दीठ देवै इण मांय र सगळा ही सबद। सुणती वेळा अपने आप नै भुल जावां। सबद री सौरम री आ ही ताकत है। आपां कोई सबद भणा अर सुणा तो बो हमेस आपांरी ओळ्यू मांय पळको मारण लाग जावै। उणसूं अंतस री संवेदना जागै। मन नै पंख लागै। 
 म्हूं ओ मानूं कै सबदा री लय ही किणी भासा नै जुग बोध देवै। अरथ री न्यारी-न्यारी छवियां सूं आपां री पैचाण करावै अर ओ सबद ही है जिणसूं अंतस रो उजास हुय सकै। राजस्थानी मांय सांतरो लिख्यौ जा रैयो है पण इण बगत जद भासा री मान्यता रो संकट सामीं है, सबदां नै अर उण रै मांय री लोप हुवती जाय रैयी ई लय नै अंगेजण री घणी दरकार है। युवा लिखारा कनै लिखण री दीठ सूं महतावूं घणो ई है। बांरै सामीं जीवण जथार्थ रा भांत-भांत रा दरसाव है पण सागै सबद संगत री चुनौती भी है। सबद रै मांय री लय नै पकड़ण री हूंस राखता बै कविता, कहानी अर दूजी विधावा मांय इस्यौ लिखै जकै मांय भाव-भोम अर आंतरै बिचाळै कोई भेद नीं रैवे।
लिखण मांय सावचेती राखण री बात आ है कै सबद कोरा सबद नीं हुवै। लय लियौड़ा बै आपरो सांगोपांग अरथ खोलै। विचार, भावना, अणभुति अर दीठ-अदीठ नै कथा मायं, कविता मांय अर दूजै लिख्यै मांय परोटतै बगत सबद री बा लय कठैई गुमै नीं। हरेक सबद री आपरी ओप, आपरी भंगिमा हुवै। बो मांय री हूंस नै संस्कार तद ही देय सकै जद आपां उण नै बरतण बगत मांय री उण री लय अवंेरण सारू सावचेत हुवां। लिखती वेळा ही नीं सुणतै, भणती वेळा भी सबद री लय नै अंवेरण री हूंस राखण री आज घणी दरकार है। युवा लिखारा ई दरकार नै चुनौती मुजब लैवे। अमरीकी कवि राबर्ट फाॅस्ट रा सबद उधार लेय‘र म्हारी बात कैवंू तो चोखी कविता या फेरूं गद्य री सरूआत सबद री आणदानुभूति सूं हुवणी चाईजै अर उणरौ अंत समझदारी मांय। सबद री लय सूं ही अरथ री भांत भांत री परत्यां खुलै। अंतहीन पण कालजयी सर्जना रो मारग सबद रै मांय री लय नै अंवेरणो ही है।
इक्कीसवीं सई मांय तकनीक रै बोलबालै मांय मिनख री संवेदना गुमती लखावै। सागै ही सागै जकी घणी अबखाई म्हूं मैसूस करूं बा आ है कै लेखक रा सबद संस्कार लोप होय रिया है। भूमंडलीकरण मांय सैं सू मोटो संकट भासावां रै मरण रो है। रोज अेक भासा री मिरतु री खबर अखबार साया करै। नीं बरतण सूं, घणकरी भासावां रा सबद लोप हुयग्या है। कणैई आखै देस मांय लिखण-भणीजण आळी संस्कृत भासा री जकी गत देव भासा बणा’र करीजी है, बा गत दूजी घणकरी भासांवा री भी हुवण आळी है, इण बात सूं नट नीं सकां। अेड़े माड़े दौर मांय युवा लिखण री लूंठी चुनौती भासा अर सबद रा गुम होवता संस्कार अंगेजण री ही म्हूं मानूं। 
दूजी लूंठी चुनौती सिजरण रो जीवण सूं जुड़ाव मुजब है। गालिब कैवे, ‘रगों में दौड़तै फिरने के हम नहीं कायल। जब आंख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है?’ जद तक अणभुति खुद री नीं हुवै तद तक बा कथीज्योड़ी भी ना कथीज्योड़ी जैड़ी है। अणुभव भासा मायं तद ही रूपान्तरित होय सकै जद बो खुद रो हुवै। लिख्यै मांय देखा-देखी की लिखणै सूं जीवन्तता नीं आय सकै। बो भणन आळा नै हमेस भरमावै। शेक्सपीयर री कवितावां आज भी इण मुजब याद करीजै के उण मांय जीवण री गैरी समझ, मानखै री ऊंडी दीठ अर पकड़ है। अणगिणत करेक्टर बां सिरज्या अर सगळा रा सगळा आप-आप री साव निरवाळा ओळखीजै। कोई किरैसूं ही मिलतो नीं लखावै। इण कारण कै बठै जीवण सूं खरो सगपण है।
चावा अमरीकी लिखारा विलियम सरोयां नै आखै जग रो ठावौ पुल्तिजर पुरस्कार दैवण री घोषणा हुई। बां ओ कैय’र इणनै ठुकराय दियौ कै पंूजी रै पाण सिरजण संरक्षण रै बे खिलाफ है। सरोंया जीवण सूं सरोकार राखण आळा बिरळा लेखकां मांय गिणजै। सिरजण मांय जीवण सूं सरोकार मुजब बां लिख्यौ है, ‘पाठकां नै कला नीं, जीवण री अभिव्यक्ति देवणी जरूरी है। लिखती वेळा कहाणी घड़नी नीं, घटती दिखणी चाइजै।’ साव साच बात आ ही है कै जिनगाणी सूं ही जीवण रो दरसाव लिखै मांय हुवैणो चाईजै। इणसूं ही बो भणन आळा रै मूंडै बोल सकै। सिरजण जीवण सूं जुड़सी जणैई मांयली अर बारली भित्यां नै तोड़न रो मारग निकळसी। जीवण रो साच हमेस फूटरो हुवै, ओ जरूरी कोनी पण इण बात सूं नट नीं सकां कै उणरी तड़प हमेस सुन्दर हुवै। आ तड़प जीवण सूं जुड़ी रचना मांय ही निगै आ सकै। युवा लिखारां नै इण मुजब सोचण री दरकार है।  
युवा लिखारां लिखती वेळा इण सगपण रो ध्यान राखै। इण सारू जीवण नै भरपूर जीवो। घणों सूं घणो भणा। कारण, हरेक भासा मांय सबद कठैई नीं जावै। बै सिजरण री साख भरता हमेस आपरै होवण नै दरसावै। जठै जिता फुटरा सबद, बठै बीती ही सबळी रचना दिखसी। सबद भणन सूं आसी। जीवण रै कनै जावण सूं आसी। न्यारा-न्यारा लोगां रै नैणै जावण सूं आसी। जीवण कनै जावण सूं सबद जोवणा नीं पड़सी। बांरी लय अवंेरण री खेचळ नीं करनी पड़सी। आपैई बा लिख्यै मांय आवण लाग जासी। अणछुई उपमावां लोगांे ने बोलते, लोगां नै भणतै आपै ही लिखै मांय आवण लाग जावै।
भासा मांय लिखणौ साव लीक मांडणौ नीं हुवै, इण खातर जरूरी ओ भी है कै आपां आपै मतै कैवण रा नूंवा थान थरपां। अे थान संस्कृति अर इतियास री समझ सूं ही थरप्या जा सकै। अबखी चुनौती आज लिखण मांय इण री भी है। लिखती वेळा इतियास, संस्कृति माडाणी लिखै मांय घुससी तो साव पतो लाग जासी कै आपां इण सारू सचेत नीं होय’र कोरी लीक पीट रैया हां। जीवण रै नैड़ै सिरजण मांय आखती-पाखती रो परिवेस, जुग संवेदना अर जीवण रो ढंग मतैई लिखै मांय आवै। ई लिख्यै मांय संस्कृति अर इतियास तद झलकसी जद आपां नै उणरी समझ होसी। लिखारौ जिण जीवण नै (भलां बो आधुनिक जीवण रो ढंग हुवै) उकेरे, उण तक मिनख री पूग रो गैलो बिनै कम सू कम ठा हुवै ही। उण री संस्कृति री सौरम सुंघण री बीनै तमीज हुवै। इण मुजब मानखै, समाज अर संस्कृति सूं लैस हुयै बिना पार कोनी पड़ै। अेक बगत बाद बो पछै सबसूं कट जावै, अपणै आपसूं भी। भलेई लिखण मांय इतियास चेतना नीं हुवै पण संस्कृति री दीठ तो हुवै। संस्कृति सौन्दर्य री ही नीं बगत री अबखांया सूं जूझण री लूंठी समझ देवै। उण मांय तीर-डूब’र कोई भी लिखारो आपरै बगत री खेचळ सांवठै ढंग सूं उभार सकै। बो बगत री बारखड़ी री परख कर उणनै आपरै आपै लिखै मांय मांड सकै। जकै बगत मांय बो जीवै, सिरजण रै पाण उण बगत ने बदळण री खेचळ इरै सूं ही बो कर सकै। इण खेचळ सूं ही बो अेक हद तक नूंवै जुग रो बोध भणन आळा नै कराय सकै। लिखण में जे ओ होय जावै तो फिर सिरजण नै कालजयी होवते ताळ नीं लागै। रेमंड विलियम्स रै कैयोडी़ बात अठै चेते आवै, ‘कोई संस्कृति कर्णई कोरे आपरै जुग नै ही नीं दिखावै। उणरौ मोटो भाग बो हुवै जिणसूं बित्यौड़ो जुग भणन आळा सामीं आवै अर जबरो भाग बो हुवै जिण मांय अणभार रो बगत ही नीं आवण आळो बगत भी ओळखिज सकै।’
संस्कृति अर इतियास री समझ री चुनौती रै सागै अणभार युवा लिखण री अेक लूंठी चुनौती या कैवूं अबखाई आ भी है कै लिखण री कोई विचारधारा रे पेटे आपां आज रै युवा लेखक रै सिरजण री साख नीं भर सका। इणरो मतलब ओ कोनी कै युवा चोखो नीं लिखै। घणकरों चोखो लिख्यौ जा रियो है पण पण उण लिखै री ओळख किणी खास दीठ सूं नीं करी जा सकै। इणरै कारण मांय जाया पछै लाधै आई बात कै लिखै मांय कोई विचारधारा नीं है। सगळो नीं पण घणकरों कोरे लिखण पेटे ही लिखीज रैयो है। म्हारो ओ मानणो है कै किणी भी सिजरण रो आधार विचार हुवै। अेड़ी कोई सत्ता नीं है जकी विचार नै नस्ट-भ्रस्ट कर सकै। विचार सूं विचारधारा बणै। लिखारां इण चुनौती नै कियां संभाळसी आ तो बैई जाणै पण किणी भी भासा री पैचाण उणसूं ही हुवै, इण बात सूं नट्यौ नीं जाय सकै। हां, विचारधारा मांय चेते राखण री बात आ भी है कै हरेक विचार सागै उणरो उलट विचार हुवै। जरूरी बात आ है कै बी उलट सु भी आपां मुडौं नी मोड़ा। घणकरी धारावां जद बैवे तद किणी अेक धारा पर ठैरणों भी पड़े, बगत मुजब कदैई उणनै छोड़नो भी पड़ै। पलटण सारू खेचळ भी हुवै पण उणनै मार्यौ नीं जा सकै। किणी बगत होय सकै महतावूं लिख्यौड़े री भी पैचाण नीं बणै पण कदैई नी कदै उण लिख्यै री कूंत होसी ही होसी। ...तो लिखण मांय विचार रै पेटे भी सोचण री दरकार है। आ बात इण मुजब भी है कै, कोई भी विचार री धारा किणी अेक ठौड़ ठैरे कोनी। इणसूं ही सिरजण लगोलग सिमरध होवतो रैवे।
पाणी जै किणी अेक जगै ही ठैर जावै तो पछै बी मांय सूं बास आवण लाग जावै। पाणी री सारथकता उणरै बैवणै सूं ही है। एतरैय ब्राह्मण रो मंत्र है, ‘चरैवेति....चरैवेति’। मतलब चालता रैवो, चालता रैवो। जकी सभ्यतावां चालती रैयी बै आगे बढी अर जकी किणी अेक ठौड़ ठैरगी, उणारो भाग भी फुटग्यौ। सिरजण री साख जणै ई बण सकसी जद लिख्यै मांय ठैराव नीं आवै। बो जुग रै सागै आपैई गैलो बणावतो चालतो रैवे।
चुनौत्या दूजी भी घणी है अर लिखसां तो अंत रो मारग ही नीं मिलैला। म्हूं समझूं घणी दरकार आपस री बंतळ री भी है। अेक-दूजै सूं संवाद नीं हुवणौ भी मोटी अबखाई है। घणा दिन नीं हुया। व्याचेस्लाव कुप्रियानोव री कविता भणी ही, ‘चुप्पी’। इणरो राजस्थानी अनुसिरजण आप सामीं राखूं, ‘म्हैं चुप हां/कै खलल नीं पडे़ चुप्पी मांय/थे चुप हो कै सगळौ कथीजग्यौ/बै चुप है कै पडूतर खातर कीं नीं है बां कनै/आओ रळ मिळ‘र करा बंतळ/इण मुजब कै आपां इत्तै बगत सूं चुप हां।’
चुपी तोड़ता आवो सबदां रै मांय री लय नै अंवेरा। संवेदना री सबद सीर सूं अेकमेक हुवां। आ बात साव साच है, बगत रै सागै दीठ-अदीठ हुय जावै। निजर धूंधळी पड़ जावै पण सबद कदैई सागो नीं छोड़े, जे उणनै आपां समझ सूं, उण री लय पैचाण’र लिख्यै मांय बरतां। चेताचुक होयोड़े मिनख रो भरोसो लिख्यौड़ा सबद पाण ही बण्यौ रैय सके। खुद री घडि़योड़ी रूढि़यां नै भी अे सबद ही तोड़ सकै। मौलिक उद्भावनां इणां सूं ही आपां थरप सकां।
आओ आपां रळ-मिळ’र सबद रै उजास कानी जावां। उणरै मांय री लय अवंेरा। साहित्य रै जुग जथारथ मांय लिखण री नुंवी कूंत सूं बधेपो करण सारू खेचळ करां। लिखणै री सरूआत दोरी हुवै पण लिखै पछै जको सोरोपण हुवै बो कैवण सूं परै री चीज है। चावा लिखारा तोल्सताय 1939 मांय युवा लिखारां खातर कागद मांड्यौ हो, लिखणै री चुनौती मुजब आज भी ओ कागद ओळ्यूं मांय पळका मारै। म्हूं म्हारी बात तोल्सताय रै इण कागद रै सागै ही पूरी करूं, ‘लिखण मांय हमेस अबखायां आवै, बां सूं पार पावणौ है। हमेस कीं न कीं संकट हुवै, जिणनै दूर करणो पडै़। किनैई ओ अणुभव नीं हुयौ कै सोरेपण सूं लिखीजग्यौ, कै कलम री चूंच सूं धारा फूटगी हुवै। लिखणो हमेस दोरो हुवै, अर जितो बो दोरो हुवै उतो ही लिख्या पछै सोरो लखासी।’

Sunday, January 20, 2013

कविता में कला और संस्कृति के अनूठे दृष्य चितराम









कविता देवै दीठका लोकार्पण

समालोचक डॉ. श्रीलाल मोहता ने कहा कि डॉ. राजेशकुमार व्यास ने राजस्थानी कविता में नई शुरूआत की है। व्यास की कविताएं समय के संदर्भ सहेजे संगीत, नृत्य, चित्रकला आदि तमाम हमारी कलाओं से हमारा सघन नाता कराती है। 
उन्होंने कहा कि हिन्दी और दूसरी भाषाओं में तो फिर भी कलाओं पर कविताएं लिखी गयी है परन्तु राजस्थान में इस तरह का कोई प्रयास अभी तक नहीं देखने में आया था, इस लिहाज से राजेश व्यास ने राजस्थानी में कविता की नई जमीन तैयार की है। उन्होंने व्यास की पैनी काव्य दृष्टि, संवेदना और परख की गहरी समझ की चर्चा करते हुए कहा कि वह ऐसे शब्द शिल्पी हैं जो शब्द के ओज की अपने लिखे में निरंतर खोज करते हैं।
डॉ. मोहतासवादसंस्थान की ओर से अजित फाउण्डेशन में कवि, आलोचक, स्तम्भकार और सूचना एवं जनसम्पर्क अधिकारी डॉ. राजेश कुमार व्यास के राजस्थानी कविता संग्रहकविता देवै दीठके लोकार्पण समारोह में संबोधित कर रहे थे। इससे पहले डॉ. व्यास ने अपना कविता संग्रह शब्द संस्कार प्रदान करने के निमित अपनी माता एवं पूर्व प्राचार्या श्रीमती शांति व्यास को समर्पित कर उन्हीं से संग्रह का लोकार्पण करवाया। वरिष्ठ साहित्यकार श्री लक्ष्मीनारायण रंगा ने व्यास की शब्द अभिव्यंजना की सराहना करते हुए कहा कि उनके पास अद्भुत दृष्टि है। कविता और साहित्य की तमाम दूसरी विधाओं में वह जो लिखते हैं, उससे परिवेश, स्थान और कलाएं हमारी आंखो के समक्ष अनायास ही उद्घाटित होती है। राजस्थानी कविता में यह उनकी प्रमुख देन ही कही जाएगी कि उन्होंने कविता में कला और संस्कृति के अनूठे दृष्य चितराम उकेरे है।
इस मौके पर डॉ. व्यास ने कहा कि कविता उनके भीतर के खालीपन को भरती हैजीवन की  तमाम दूसरी विषमताओं, विसंगतियों से जूझने का सहारा देती है उन्होंने संग्रह में से चुनिन्दा कवितावों का पाठ भी किया 
कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए सुप्रसिद्ध कवि, आलोचक डॉ. मदन केवलिया ने कहा किकविता देवै दीठके जरिए व्यास के संवेदनशील कवि मन को गहरे से समझा जा सकता है। उन्होंने संग्रह कीशब्दकविताओं की चर्चा करते हुए कहा कि व्यास ने अपनी कविताओं से राजस्थानी शब्दों को अपने तई संस्कारित किया है।
इससे पहलेकविता देवै दीठसंग्रह पर कवि, कथाकार प्रमोद शर्मा ने विस्तार से आलोचनात्मक टिप्पणी रखी। उन्होंने कहा कि व्यास की सूक्ष्म बिम्ब, प्रतीकों के जरिए थोड़े में बहुत कुछ कहने वाले कवि हैं। अंतर्मन संवेदनाओं को कविताओं में गहरे से जीने वाले व्यास के पास संस्कृति और समय की अनूठी व्यंजनाएं हैं। उनकी कविताओं में दार्शनिक बोध है तो जीवन से जुड़ी अनुभूतियों की अद्भुत लय भी है। महाजन से आए कवि डॉ. मदन गोपाल लढ्ढा ने कार्यक्रम संचालन करते हुए डॉ. व्यास के लेखकीय सरोकारों और उनकी काव्य संवेदनाओं से जुड़े पहलुओं के बारे में विस्तार से बताया। सहायक जनसम्पर्क अधिकारी, कवि हरिशंकर आचार्य ने बताया किसंवादव्यास के कविता संग्रह लोकार्पण आयोजन से गौरवान्वित है।संवादके अविनाश आचार्य ने संस्था की गतिविधियों के बारे में जानकारी दी और आयोजन के महत्व पर प्रकाश डाला। 
लोकार्पण समारोह में युवा कवि, आलोचक नीरज दईया, कथाकार नवनीत पाण्डे, जागती जोत के सम्पादक, कवि,कथाकार रवि पुरोहित, खेल लेखक मनीष जोशी, जलेस के लोकेश आचार्य, सुप्रसिद्ध कलाकार सन्नू हर्ष, योगेन्द्र पुरोहित, मरू व्यवसाय चक्र के संपादक डॉ. अजय जोशी, नाटककार हरीश बी.शर्मा, पत्रकार भवानी जोशी सहित, ओम सोनी, रंगकर्मी रामसहाय हर्ष सहित बड़ी संख्या में गणमान्यजन उपस्थित थे।