Wednesday, June 27, 2012

पाँच कविताव़ा







सूरज सरीखा
रोज उगै सुपना
पूरा नीं होवै
जणै
बण जावै
सुळगती थेपड़््यां
धुखै आखो डील
भुंआळी खा’र
कुरळावै मन
आभै रा उतरै
लेवड़ा
पित्तरां री ओळ्यं
मांय री बळत बधावै
खूंजा संभाळूं जणै
कीं नीं मिलै
खुद सूं
खुद री
आ राड़
भोभर बणावै।



किवाड़ खटखटावतो बगत

जाग्योड़ी
आंख रै
सूपना रै
खेत मांय
अणूतो हंसै
बिजूको।
खुरदरा हाथां मांय
उगै डूंगर
सोयोड़ो इतियास
जागण लाग जावै
तद
ठंडै
अर ताते
मांय नी रैवै भेद
हाका करतो बगत
किवाड़ खटखटावै,
कविता नै बुलावै।



सोनार किलो

सोनलिया धोरां पर
पसरै रात
मून गवाही देवै
धरती
अर आभै री बंतळ
घेरदार घाघरो पैर्यां
दूर सूं
मुळकतो लखावै
सोनार किलो।



छिंया री कठै गेल

बादळी लुकगी
सूरज री ओट मांय
चाणचक
बाजण लाग गी पून
जेठ रै अकड़ै तावड़ै मांय
छिंया री कठै गेल।


किंया भागतो काळ

धोरा मांय
डरूं फरूं बोया
आस रा बीज
भाठा रोप
उगाया
रूंख
सोच्यो हो
मिट जासी
सगळी ही अबखायां
पण
सीख नीं सक्यो
बगत रो
काण-कायदो
पछै
किंया भागतो काळ।


Sunday, June 3, 2012

सबद, रंग अर राग


कूदरत री कोरनी
सूं उपजै
सबद, रंग अर राग
कानां मांय सुणीजै
नीझर ज्यूं खळकतो कंठ
विगत बणै
मिठी मिमझर पीड़
म्हूं अवेंरू
थारो हेत
थरपूं
नूंवा थान
सांमी आवै
जूण-जातरा रा
अलोप हुयौड़ा
सांवठा चितराम!