Saturday, September 7, 2013

"कविता देवै दीठ" सूं कीं कवितावां

कविता री दीठ संस्कृति रे पाण ही हुवे. इण बात रो गुमेज है के हूँ राजस्थानी जेड़ी जग री लूंठी-अलूंठी म्हारी मायड  भासा मायं सोचू. राजस्थानी री सबद संपदा पर जद भी जाऊं, लखावे राजस्थानी फगत भाषा नी, मिनखपणे रे जुगबोध ने अंवेरती संस्कृति है.  इण पर कदै फेरु...अणभार "कविता देवै दीठ" सूं कीं कवितावां आपरी खातर...


जीवण

जागूं जणै
उजास हुय जावै
उजास, जीवण है।

अंधारो हुवै जणै
नींद आ जावै
नींद, मिरतु है।

लिखूं जणै
अकास हुय जावूं
अकास, मन है।

सोवूं जणै
सुपना आवै
सुपना, अकास है।

मिंदर जावूं जणै
अरदास करूं
अरदास, पछतावो है।

नीं पड़ै पार जणै
रीस आवै
रीस, अंतस रो डर है।
उजास / नींद/
अकास / सुपना
अरदास / रीस-
आं सगळां नैं
भेळा कर
जीवूं ओ जीवण।
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निसर जावै रेत

रेत नीं
अंवेर्यो हो
धोरां रो हेत।

धोबा भर-भर
भेळी करता बेकळू
भायलां सागै
रळ-मिळ’र
रोज बणावता
म्हैल-माळिया।

विगत मांय जावूं
सोधूं-
कीं लाधै कोनी
भींच्योड़ी होवतै थकै
छानै’क
मुट्ठी सूं
निसर जावै रेत।
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रेतघड़ी

पवन धोवै
धोरा मंड्या पगल्या
कीं नीं रैवै बाकी
रेतघड़ी
कण-कण री
करै गिणती
बीत्योड़ै नैं करती
मुगत....।
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सबद

एक
अदीठ नैं
देवै दीठ,
थारै-म्हारै
बिचाळै रो भरै-
आंतरो।

गूंगा होवता थकां पूगै
था कनै म्हारा
अर
म्हा कनै थारा-
सबद।

म्हूं पोखूं
म्हारी पीड़,
भेळो करूं हेत....
आव-
अबखै बगत सारू
अंवेरां आपां
थारै-म्हारै बिचाळै रा
अणकथीज्या
सबद।
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दोय
नाप लेवै सबद
अरबां-खरबां
कोसां रो आंतरो
बूर देवै
मन मांय
खुद्योड़ी
अलेखूं खायां।

घणकरी बार
सुळझाय देवै
अंतस मांय
उळझ्योड़ा
हजारूं-हजार
गुच्छा।

सबद पुळ है
अबखै बगत रा
जीवण-जातरा रा।
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